बस्तर दशहरा Bastar dussehra छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में से सर्वश्रेष्ठ पर्व है। भारत वर्ष में दशहरा के पर्व को विजय प्रतिक के रूप में मनाया जाता है इस अवसर पर रावण दहन किया जाता है
वहीं दूसरी ओर बस्तर में इस पर्व को विजय प्रतिक के रूप मे तो मनाया जाता है लेकिन इस अवसर पर रावण दहन नहीं किया जाता बल्कि इस अवसर पर महिषासुर मर्दिनी स्वरूप देवी दंतेश्वरी और अन्य स्थानिय देवी देवताओं की पूजा की जाती है।
बस्तर दशहरा पर्व में चारामा से लेकर बीजापुर तक असंख्या देवी देवता शामिल होने आते है देवी दंतेश्वरी का शाक्ति पिठ जगदलपुर मुख्यालय से 86 किलोमिटर दूर दंतेवाडा जिले के अन्तर्गत तराला ग्राम में स्थित है। लोक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर देवी सती का दात गिरा था इस लिए यंहा देवी दंतेश्वरी शक्तिपिठ की स्थापना की गई।
इस मंदिर की स्थापना 14 वी वर्ष में काकतिय के सस्थापक पन्नमदेव ने की थी दंतेवाडा के अतिरिक्त देवी दंतेश्वरी का मंदिर बस्तर क्षेत्र में जगदलपुर और बड़े डोगंर में भी स्थित है। 17 वीं शताब्दी तक बड़े डोंगर में बस्तर दशहरा पर्व का आयोजन किया जाता था। लेकिन 17 वीं शताब्दी में दलपत देव ने अपनी राजधानी बस्तर से जगदलपुर स्थांनातरित की और उसके बाद से बस्तर दशहरा पर्व को जगदलपुर में मनाया जाने लगा।
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इस प्रकार से बस्तर वासियों के द्वारा सावन अमावस्या से लेकर पूरे 75 दिनों तक मनाया जाता है यह पर्व भारत का ही नहीं बल्कि पूरे विश्व का सबसे लंबा चलने वाला पर्व है इस पर्व में विशेष रूप से रथ का परिचालन किया जाता है जिसकी शुरूवात रियासत काल में बस्तर के काकतिय वंश के चौथे शासक पुरुषोत्तम देव ने की थी।
- दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा
- पाठ जात्रा का रस्म
- डेरी गड़ाई का रस्म
- काछिन गादी (काछिन देवी को गद्दी)
- नवरात्रि का पहला दिन
- नवरात्रि का दूसरा से सप्तमी दिन
- नवरात्रि का अष्टमी दिन
- जोगी उठाई रस्म
- मावली परगाव रस्म
- भीतर रैनी का रस्म
- बाहर रैनी का रस्म
- काछिन जात्रा का रस्म
- मुरिया दरबार रस्म
- कुटूम जात्रा का रस्म
- अंतिम विदाई
दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा :-
बस्तर में दशहरा एंव गोंचा पर्व में रथ चलने की प्रथा 610 वर्ष पहले काकतीय वंश के शासक राजा पुरुषोत्तम देव ने की थी राजा पुरुषोत्तम देव ने ग्राम के प्रमुख लोग और सामन्तो के साथ जगन्नाथ पुरी की पदयात्रा की थी मंदिर में पहुंचते ही उन्होंने बहुत सारी स्वर्ण मुद्राएं और रत्न आभूषण भेट स्वरूप अर्पित की।
राजा की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ जी पुजारी के सपने में आये और उन्होंने पुजारी को पुरुषोत्तम देव को 16 पहिए वाले रथ को भेट करने का आदेश दिया।
पुजारी ने राजा पुरुषोत्तम देव को 16 पहिए वाले रथ भेट स्वरूप अर्पित किया और उन्हे रथपति के रूप में विभूषित किया राजा पुरुषोत्तम देव पुरी से श्री जगरनाथ, देवी सुभद्रा और बलराम जी के विग्रहों को लेकर रथ में बैठ कर बस्तर वापस लौटे और बस्तर लौटते ही उन्होंने इनके विग्रहो को जगदलपुर में स्थापित किया।
इन सोलह पहिए में से चार पहिए वाली रथ को भगवान जगन्नाथ को अर्पित किया और बारह पहिए वाली रथ को देवी दंतेश्वरी को अर्पित किया तब से लेकर आज तक बस्तर दशहरा एंव गोंचा पर्व के अवसर पर रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी।
पाठ जात्रा का रस्म :-
बस्तर दशहरा पर्व में सबसे पहला पाठ जात्रा का विधिवत प्रारंभ सावन अमावस्या के दिन पाठ जात्रा के रस्म से होता है इस पर्व का इस दिन रथ निर्माण के लिए बिलोरी या माच कोट के अंश से साल वृक्ष के लकड़ी के लठे को लाया जाता है और जगदलपुर में राज परिसर के अन्तर्गत स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर के समक्ष इस लकड़ी के लठे की और औजारों की पूजा की जाती है।
इस प्रथम लकड़ी के पट को तुलरू कोटला कहा जाता है, जिसे रथ का निर्माण किया जाता है। रथ के निर्माण के लिए रथ के पहिए को देवसा लकड़ी से बनाया जाता है और उसके बाकी के हिस्से को साल की लकड़ी से बनाया जाता है इस प्रकार पाठ जात्रा रस्म से दशहरा पर्व का रस्म प्रारंभ होता है।
डेरी गड़ाई का रस्म :-
बस्तर दशहरा का दूसरा रस्म डेरी गड़ाई का होता है यह रस्म भादव शुक्ल को बोरिक पाल ग्राम के निवासियों के द्वारा लगभग 10 फिट उंचाई साल वृक्ष्ाी के दो डेरियों को सीरासार भवन के पास लाते है और वंहा 15 से 20 फीट की दूरी पर उन दोनों डेरियों को गडडा करके वहां पर उसे गाड़ते है।
विधि विधान से उसकी पूजा अर्चना किया जाता है और इन गडडो पर मोगरी मडली का अंडा और लाई को डालकर डेरियों को स्थापित किया जाता है इस रस्म के बाद निर्धारित ग्रामों से कारीगरों निर्माण के लिए आते है और वे सीरासार भवन में रूक कर रथ निमार्ण का कार्य प्रांरभ करते है। इस प्रकार से रथ के विभिन हिस्सों का निर्माण का कार्य अलग अलग ग्राम के लोगो के द्वारा किया जाता है।
काछिन गादी (काछिन देवी को गद्दी) :-
बस्तर दशहरा का तिसरा रस्म काछिनगादी का होता है काछिनगादी (काछिन देवी को गद्दी) देना। रण की देवी काछिन बस्तर के मिरगानो की तिकड़ा और जंडार जाति के लोगो की कुल देवी है यह देवी उनके पशु, धन, अन्न की रक्षा करती है। अश्विन अमावस्या के दिन राज परिवार और बाकि सदस्यों के लोग गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकालकर पथरागुड़ा स्थित काछिन गुड़ी परिसर में पहुचते है।
काछिन देवी एक महारा जाति की नाबालिग बालिका पर आरोग होती है और इस नाबालिक कन्या को कांटो के झूले पर सुलाकर झुलाया जाता है और उसे दशहरा निर्विन संपन्न कराने की मांग की जाती है। काछिन देवी अनुमति मिलने के बाद ही दशहरे का पर्व प्रांरभ किया जाता है। इस रस्म के बाद शाम के समय गोल बाजार के समीप राजकुमारी रैलादेवी का साद कर्म किया जाता है अथार्त रैला पूजा विधि विधान से किया जाता है।
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नवरात्रि का पहला दिन :-
अश्विन शुक्ल प्रथम दिन देवी दुर्गा के शक्ति स्वरूप विभिन्न मंदिरों में ज्योति कलश कि स्थापना किया जाता है इस दिन बस्तर के बड़े आमापाल ग्राम के जोगी परिवार का वंशज मावली माता के मंदिर में पूजा अर्चना किया जाता है उनसे खांडा (तलवार) प्राप्त करके वे सीरासार भवन में एक आदमी के समायत के लायक बने गड्ढे पर तलवार को लेकर देवी दंतेश्वरी के प्रथम पुजारी के रूप में 9 दिनों तक योग साधना पर बैठ जाता है।
इन 9 दिनों तक केवल व दुध आहार और फलाआहार का सेवन करता है इस प्रकार से देवी दंतेश्वरी से दशहरा र्निविगन सम्पन्न कराने की कामना किया जाता है। रियासत काल से ही हल्बा जाति का जोगी इस परम्परा का निवार्हन किया जाता है।
नवरात्रि का दूसरा से सप्तमी दिन :-
अश्विन शुक्ल द्वितीय का दिन अश्विन शुक्ल द्वितीय से लेकर लगातार 6 दिनो तक अथार्त अश्विन शुक्ल सप्तमी तक फुलो से सुसर्जित चार पहिए वाले फुल रथ का परिचालन किया जाता है इस रथ को प्रतिदिन जगदलपुर में एक निश्चित मार्ग पर खिंचा जाता है।
इस रथ में देवी दंतेश्वरी के छत्र को पुजारी के द्वारा आरूण किया जाता है और उनकी पूजा-अर्चना की जाती है फिर उनको सलामी दी जाती है फुल रथ की रस्सी को सियाड़ी नामक वृक्ष के छाल से करंजी केसर पाल और सोनाबाल ग्राम के लोगों के द्वारा बनाया जाता है।
फुर रथ की रस्सी को प्रतिदिन अलग-अलग ग्राम के लोगों के द्वारा खींचा जाता है इस कार्य को बस्तर तहसील के 32 और तोकापाल तहसील के 4 ग्राम के लोग करते हैं इस दौरान उन लोगों में अलग ही उत्साह देखने को मिलता है इस दौरान नृत्यगान बैडं बाजे तथा मोहरी की गुंज चारो तरफ गुंजती रहती है और शाम होने के बाद प्रतिदिन रथ, सिंह द्वार के सामने आकर रुक जाती है।
इसके बाद दंतेश्वरी देवी के छत्र को वापस मंदिर में स्थापित कर दिया जाता है इस प्रकार लगातार 6 दिनो तक रथ का परिचालन किया जाता है और अश्विन शुक्ल सप्तमी को बेल पूजा का विधान भी किया जाता है।
नवरात्रि का अष्टमी दिन :-
नवरात्रि का अष्टमी दिन आधी रात को दंतेश्वरी देवी मंदिर में देवी दंतेश्वरी की पूजा आराधना कर उनकी डोली को एक शोभायात्रा निकालकर निशा जात्रा मंदिर में ले जाया जाता है इस मंदिर में खमेश्वरी देवी का वास होता है इसके अतिरिक्त यंहा देवी दंतेश्वरी और देवी मणेकेश्वरी का भी वास होता है
इस मंदिर में इनकी पूजा आराधना कर बकरों की बलि दी जाती है और इसे प्रसाद के रूप में प्रतिष्टित लोगो के घर में पहुंचाया जाता है। अश्विन शुक्ल अष्टमी और नौवमी को रथ का परिचालन नहीं किया जाता है।
जोगी उठाई रस्म :-
नवरात्रि का नौवां दिन जोगी उठाई का रस्म किया जाता है इस दिन शाम को सीरासार भवन में लगातार 9 दिनो तक योग साधना में बैठे हुए जोगी को व्रत के पूर्ण होने पर उठाया जाता है और उन्हे पुरस्कार देकर सम्मानित किया जाता है। जोगी उठकर अपने देवी-देवताओं को आभार प्रकट करता है और पर्व के निर्विगन संपन्न होने पर उनकी पूजा आराधना करके मावली मंदिर में जाकर खांडा को पुन: स्थापित करने के बाद अपने व्रत को तोड़ता है। जिसे जोगी उठाई रस्म कहा जाता है।
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मावली परगाव रस्म :-
मावली परगाव का रस्म नवरात्रि का नौवां दिन किया जाता है इस दिन रात्रि में देवी मावली आमंत्रण होने के बाद दंतेश्वरी देवी के डोली पर बैठकर दंतेश्वरी देवी का छत्र ये दोनो बस्तर दशहरा में शामिल होने के लिए दंतेवाड़ा से जगदलपुर आते हैं इस रस्म को मावली परगाव कहा जाता है।
दंतेवाड़ा में इनकी विदाई हो या फिर जगदलपुर में इनका परगाव हो ये दोनो ही दृश्य बहुत ही भव्य होता है और देखते ही बनता है इसके लिए एक विशाल जुलूस निकाला जाता है औरं इसमें शामिल होने के लिए राज्य के अन्य देवी देवता भी यहां पहुंचते है।
इस अवसर पर यंहा के लोगो के द्वारा जंगली भौसे के सिंग को अपने सिर पर लगाकर गौर नृत्य किया जाता है और इस प्रकार से जगदलपुर में देवी मावली को परगाया जाता है उनका स्वागत किया जाता हैं उसके बाद उन्हे दंतेश्वरी मंदिर में स्थापित किया जाता है।
भीतर रैनी का रस्म :-
विजयादसमी के दिन भीतर रैनी का रस्म किया जाता है इस अवसर पर 8 पहिए वाले विजय रथ का परिचालन किया जाता है विजय दसमी के दिन भीतर रैनी के रथ को पूर्व निर्धारित मार्ग पर खिंचा जाता है और रात्रि में यह सिंह द्वारा के समक्ष आकर रूक जाता है। इसी दिन देर रात्रि को किलेपाल क्षेत्र के लोगो के द्वारा इस रथ को चोरी कर लिया जाता है और नगर से 3 किलोमीटर दूर कुमडाकोट क्षेत्र में लाकर रख दिया जाता है।
बाहर रैनी का रस्म :-
बाहर रैनी का रस्म एकादसी के दिन किया जाता है इस अवसर पर राज परिवार और बस्तर की जनता आपने देवी देवताओं को साथ में लेकर कुमडाकोट पहुचते है और वहां सभी देवी देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है और खेत खलियान से आये अन्न को उपयोग करने से पहले अपने कुल देवी देवताओं की अर्पित किया जाता है।
इस अवसर पर राजा अपनी जनता के साथ मिलकर नवा खाई का पर्व मनाते है और देवी दंतेश्वरी से वापस चलने के लिए अनुरोध किया जाता है उसके बाद किलेपाल क्षेत्र के माड़िया जनजाति के लोगो के द्वारा इस आठ पहिए वाले झूलेदार विजय रथ को कुमडाकोट से सिंह द्वार के समक्ष लाकर खड़े कर दिया जाता है।
काछिन जात्रा का रस्म :-
अश्विन शुक्ल द्वादस के दिन काछिन जात्रा का रस्म किया जाता है इस अवसर पर देवी काछिन देवी की पूजा की जाती है और उनकी विदाई की जाती है।
मुरिया दरबार रस्म :-
मुरिया दरबार सिरासार भवन में जन समस्याओं के उपर चर्चा करने और उसके समाधान के लिए मुरिया दरबार का आयोजन किया जाता है। जहां मांझी-मुखिया और ग्रामीणों की समस्याओ का निराकरण किया जाता है। मुरिया दरबार में पहले समस्याओं का निराकरण राजपरिवार करता था
मुरिया दरबार का आयोजन ब्रिटिश काल में 18 सौ 76 ईस्वी को मुरिया विद्रोह के फलस्वरुप वहां की जनता के असंतोष को दूर करने के लिए किया गया था और तब से लेकर आज तक मुरिया दरबार का आयोजन बस्तर दशहरा पर्व के अवसर पर किया जाता है जिसके तहत यहां के जन समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया जाता है।
कुटूम जात्रा का रस्म :-
अश्विन शुक्ल तेरस को कुटूम जात्रा का रस्म किया जाता है इस अवसर पर बस्तर दशहरा में शामिल हुए सभी देवी-देवताओं की पूजा की जाती है और उन्हे भेट भी की जाती है भेट के स्वरूप नये कपड़े और चंदन अर्पित किए जाते हैं और उनकी विदाई की जाती है।
अंतिम विदाई :-
अंतिम विदाई अश्विन शुक्ल के चौदवे दिन देवी दंतेश्वरी की छत्र की और देवी मावली की डोली की की जाती है बस्तर दशहरा Bastar dussehra के अंतिम रस्म के रूप में इनकी पूजा की जाती है और उसके बाद विशाल शोभायात्रा निकालकर इन्हे विदा किया जाता है इस प्रकार 75 दिनों तक चलने वाला यह पर्व बस्तर के समृद्ध संस्कृति को दर्शाता है। अगर यह जानकारी अच्छी लगी हो तो कमेंट करके जरूर बताऐ और ऐसी ही जानकारी daily पाने के लिए हमारे Facebook Page को like करे इससे आप को हर ताजा अपडेट की जानकारी आप तक पहुँच जायेगी।
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